June 13, 2025

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आज के दिन: भारत ‌को मिले दो महानायक, दोनों ने किए क्रांतिकारी बदलाव

आज के दिन: भारत ‌को मिले दो महानायक, दोनों ने किए क्रांतिकारी बदलाव

एनसीआई@सेन्ट्रल डेस्क
आज भारत की दो प्रसिद्ध हस्तियों का जन्मदिन है। पहले हैं सम्पूर्ण क्रांति के जनक लोकनायक जयप्रकाश नारायण और दूसरे हैं सदी के महानायक अमिताभ बच्चन। दोनों ने अपनी-अपनी विधाओं में अलग पहचान कायम की, क्रांतिकारी बदलाव किए। इतिहास में अपनी विशेष पहचान दर्ज की। अद्भुत संयोग यह भी है कि दोनों श्रीवास्तव कायस्थ कुल में पैदा हुए थे। हालांकि दोनों में एक बड़ा अंतर यह रहा कि एक ने देश व समाज के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया, वहीं दूसरे ने इसे अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर हासिल किया।
जेपी: असम्भव को सम्भव कर दिया
जयप्रकाश नारायण यानी जेपी का जन्म 11 अक्टूबर 1902 को बिहार में सारन के सिताबदियारा में हुआ था। पटना से शुरुआती पढ़ाई के बाद अमेरिका में पढ़ाई की। 1929 में स्वदेश लौटे और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हुए। तब उनके विचार मार्क्सवादी थे। वे सशस्त्र क्रांति से अंग्रेजों को भारत से भगाना चाहते थे। हालांकि, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से मिलने के बाद उनका नजरिया बदल गया था। इसके बाद वे नेहरू की सलाह पर कांग्रेस से जुड़े। लेकिन, आजादी के बाद वे आचार्य विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन से जुड़ गए। ग्रामीण भारत में आंदोलन को आगे बढ़ाया और भूदान आंदोलन का समर्थन किया। जेपी ने 1950 के दशक में ‘राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना’ नामक किताब लिखी। इसके बाद ही नेहरू ने मेहता आयोग बनाया और विकेन्द्रीकरण पर काम किया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जेपी ने कभी सत्ता का मोह नहीं पाला। नेहरू उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल करना चाहते थे, मगर वे इससे दूर रहे।
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने रायबरेली चुनाव में धांधली होना पाने से इंदिरा गांधी का वहां से सांसद चुना जाना अवैध घोषित कर दिया। साथ ही आगामी छह महीने तक उनके कोई और चुनाव लड़ने पर भी पाबंदी लगा दी। इससे इंदिरा गांधी के लिए राज्यसभा में जाने का रास्ता भी बंद हो गया। इधर, इंदिरा गांधी पर चुनावों में भ्रष्टाचार का आरोप सही साबित होने पर जेपी ने उनसे इस्तीफा मांगा। साथ ही उनके खिलाफ एक आंदोलन भी खड़ा किया, जिसे जेपी आंदोलन कहते हैं, हालांकि जेपी ने इसे ‘सम्पूर्ण क्रांति’ नाम दिया। तब और कोई रास्ता ना देख इंदिरा गांधी ने अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए 25 जून 1975 की आधी रात को देश में आपातकाल घोषित कर दिया। जेपी के साथ ही अन्य विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।‌
जेपी की गिरफ्तारी के खिलाफ दिल्ली के रामलीला मैदान में एक लाख से अधिक लोगों ने हुंकार भरी थी। उस समय रामधारी सिंह “दिनकर” ने कहा था “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनवरी-1977 में इमरजेंसी हटी। लोकनायक के ‘सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन’ के चलते देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। जेपी को 1999 में भारत सरकार ने भारत रत्न से सम्मानित किया।

अमिताभ बच्चन: बदल दिए अभिनय के मायने
हरिवंश राय बच्चन की कविता ‘अग्निपथ’ की ये पंक्तियां- तू न थकेगा कभी/ तू न रुकेगा कभी/ तू न मुड़ेगा कभी… मानो उनके बेटे अमिताभ की नियति का ही बखान थीं। पचास सालों के इस फिल्मी सफर में ‘लम्बू’ से वे ‘बिग बी’ बने। वह सबसे अलग हैं, क्योंकि उन्होंने समय को पहचाना है। समय से होड़ नहीं की, समय के साथ कदम मिला कर चले। करियर के पचासवें वर्ष में ‘दादा साहब फाल्के’ से सम्मानित हुए सदी के महानायक को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं।
ऐसा भी एक दौर आया था
मुखपृष्ठ पर सियापा का अहसास कराती सफेद पृष्ठभूमि, गमगीन चेहरे और पस्त भाव में ‘दीवार’ पर हाथ टिकाए अमिताभ बच्चन। प्रमुखता से काले बड़े अक्षरों में लिखा ‘फिनिश्ड’। करीब 30 साल पहले अंग्रेजी की अति लोकप्रिय साप्ताहिक पत्रिका के तत्कालीन सम्पादक ने अमिताभ बच्चन की लगातार पिट रही फिल्मों पर यही कवर स्टोरी लिख उनके करियर को ‘समाप्त’ घोषित कर दिया था। आशय था ‘चुक गए’। 44 बसंत ही देखे थे तब तक उन्होंने और परमानेंट ‘पतझड़’ का बोध करा दिया गया। निश्चित रूप में वो उनका खराब दौर था। हो सकता है, पत्रिका का सर्कुलेशन बढ़ाने में कथित आवरण कथा ‘श्रद्धांजलि’ साबित हुई हो, फिर भी उन दिनों मीडिया से बौखलाए अमिताभ ने किसी प्रकार का प्रतिकार नहीं किया, विरोध नहीं जताया। उनकी फिल्में आती रहीं, पिटती भी रहीं। समय का पहिया यकायक ऐसे घूमा कि ‘कौन बनेगा करोड़पति’ से टीवी पर जोरदार दस्तक के साथ ‘सरकार’, ‘पा’, ‘चीनी कम’, ‘ब्लेक’ जैसी फिल्मों से उनके अभिनय का वृक्ष आज लहलहा रहा है।
उनकी फिल्म ‘पीकू’ में उनका ‘मेस्मराइज्ड’ अभिनय देख सहज उस स्टोरी का ध्यान आया कि जिसे तीस साल पहले समाप्त कर दिया गया हो, वह आज भी जीवंत है। ये न उद्घाटित करूं तो उन महाशय के साथ क्रूरता और अन्याय होगा कि श्रीमंत ने कालांतर में प्रमुख राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक में विनम्र प्रायश्चित किया कि पत्रकारिता की यात्रा में यह स्टोरी उनकी सबसे बड़ी भूल साबित हुई। जाहिर है, उम्र के इस पड़ाव पर जब उनके समकालीन अभिनेता सेहत के चलते लाचार हैं, उनके न सिर्फ अभिनय का, बल्कि लोकप्रियता का दायरा बढ़ता ही जा रहा है। विज्ञापन जगत में भी इतना दुलार किसी अन्य के हिस्से नहीं आया। सभी चाहते हैं उनके उत्पाद को बच्चन सर ही प्रमोट करें।
कला, राजनीति, खेल जगत, व्यवसाय सभी क्षेत्रों में उतार-चढ़ाव आते हैं, लेकिन विफलताओं की मामूली खरोंच से किसी को खारिज कर देना मात्र सुर्खियां बटोरना होता है। कुछेक फिल्में पिट जाने या दो-चार बार शून्य पर आउट हो जाने से करियर जख्मी नहीं हो जाता। बच्चन जी की ये टिप्पणी भी खूब पढ़ी जाने वाली साप्ताहिक हिन्दी पत्रिका ‘दिनमान’ में रेखांकित की गई कि ‘मेरा बेटा कहता है कि बहुत दिनों तक शीर्ष पर नहीं रहने वाला। ऐसा होने पर मैं इलाहाबाद चला जाऊंगा और वहां जाकर दूध बेचूंगा।’ बुद्धिजीवियों के शहर इलाहाबाद में ये हृदय-जीवी आया जरूर, लेकिन अलग भूमिका में। अंतत: इलाहाबादियों की अपेक्षाओं पर विफल होने के बाद नमस्ते कर दिया राजनीति को।
कुछ साल पहले एक और अनुरागी मोशाय की काबिलियत का बरगद इतना विशाल हो गया कि महानायक का उद्यान उनको मुरझाता नजर आने लगा। सलाह दे डाली, सर अब चुक गए आप। रिटायर हो जाइए। संयोग कि फिनिश्ड और रिटायर होने की सलाह देने वाली दोनों हस्तियां बंगाली थीं। ‘पीकू’ में बुजुर्ग बंगाली भास्कर बनर्जी का किरदार निभाने वाले अमिताभ आपादमस्तक बंगाली नजर आए। साबित कर दिया उन्होंने कि वो आराम से बैठने वाली शख्सियत नहीं। अपनी क्षमताओं को जानते हुए लीक से हटकर साहसिक रोल चुनते हैं, जबकि उनसे उम्र में काफी छोटे दूसरे हीरो, जिनके गेटअप में भले फिल्म दर फिल्म बदलाव आ जाए, अभिनय में कोई ताजगी नहीं।
सात की दहाई के आठ फेरे (78 साल) पूरा कर चुका महानायक अभी भी सत्रह साल की सी ऊर्जा से लबरेज है। ये ऊर्जा अभिनय में नई भूमिकाएं, नई चुनौतियां स्वीकार रही हैं। ‘केबीसी’ के वर्तमान संस्करण में उनकी विनोदप्रियता और सहजता पर कौंध रही हैं ये पंक्तियां- ‘वो बोलता है तो झरते हैं हीरे-मोती/ जो उससे बात भी कर ले अमीर हो जाए।’ प्रांजल भाषा उनकी शिराओं में प्रवाहमान है। वही सबसे बड़ी ताकत है उनकी। फिल्में चलती हैं, फ्लॉप होती हैं, लेकिन सशक्त अभिनय से अभिनीत भूमिका जीवंत रहती हैं। ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित महानायक के चाहने वालों की कामना है, क्रुद्ध युवा से सौम्य प्रौढ़ तक की यात्रा सम्पन्न करने वाला सदी का महान शख्स इसी चुस्ती-दुरुस्ती के साथ हरा-भरा रहे। सलामत रहे उनकी अनंत ऊर्जा। जीवेम शरद: शतम्।

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